इन दिनों प्रदेश की राजनीति में शीशा बहुत चर्चा में है।
शीशा भी गजब की चीज है, अनादिकाल से राजा महाराजा,उनकी चहेती रानियों और प्रेमियों के साथ कवियों शायरों की जुबान पर भी शीशे का जिक्र होता रहा है।
राजनीति में आने के बाद असफल लोगों को छोड़ उन सबके घर शीशे के होते है जिन्होंने राजनीति में अपनी जमीन बनाई है।कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राजनीति की जमीन पर सबके महल शीशे के होते है।काश इन शीशों में पारा भी लगा होता तो यह शीशे की जगह आईना होते और हकीकत से रूबरू कराते रहते लेकिन बिना पारा के यह विशेष किस्म के शीशे के अंदर बैठे लोग दूसरों को तो देखते रहते है लेकिन इन्हें बाहर से नहीं देखा जा सकता बाहर से तो वही दिखता है जो दिखाया जा रहा है। यह बात अलग है कि जिस व्यक्ति का घर शीशे का होता है उसे दूसरे के शीशे वाले घर की जानकारी रहती है अंदर कैसे देखा जाता है।
हालांकि शीशा सदियों से चर्चाओं में रहा है।बात शीशे की चल रही थी तो सुधि पाठकों को पता ही होगा।शीशे पर बुंदेलखंडी मुहावरा लोकप्रिय है अपना मुंह आइने में तो देख लो पहले ,अनेक फिल्मी गाना बहुत मशहूर हुए।जैसे तोरा मन दर्पण कहलाए,
शीशा हो या दिल हो आखिर टूट जाता है,आईना वही रहता है,चेहरे बदल जाते है।
कुछ शायरी जैसे
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था—मिर्ज़ा ग़ालिब।
यहां समझ लेना जरूरी है कि शीशा और कांच में बहुत अंतर होता है। कांच में आर पार देखा जा सकता है और शीशा यानी दर्पण जिसमें सिर्फ एक तरफ ही प्रतिबिंबित होता है उसके पार नहीं दिखाई देता।अब क्या है कि
कई लोग कांच और शीशे के अंतर को जानते तो है लेकिन बोलचाल की भाषा में शीशा बतौर मुहावरे के रूप में कहने लगे है।हालाकि यह मुहावरा वक्त फिल्म में अभिनेता राजकुमार द्वारा बोला गया था कि “चिनाय सेठ..जिनके घर शीशे के होते है, वह दूसरे के घर पर पत्थर नहीं फेंकते” समय के साथ राजनीति या अन्य प्रतिद्वंदियों के बीच यह कलजयी डायलॉग काफी चर्चित रहा है और आगे भी रहेगा।
