अनुभव करने के लिए हमें स्वयं को पूरी तरह समर्पित करना पड़ता है
संपर्पण और श्रृद्धा से निर्भयता का होता है जन्म

जीवन में कुछ अनुभव ऐसे होते हैं, जिन्हें शब्दों में पिरोना कठिन होता है। वे अनुभव केवल अनुभव किए जा सकते हैं। मैं जब भी अपने जीवन के उन पलों को स्मरण करता हूं, जो मैंने नर्मदा परिक्रमा के दौरान अनुभव किए, तो मेरे हृदय में एक असीम शांति और आनंद भर जाता है।
नर्मदा परिक्रमा केवल एक यात्रा नहीं थी, वह एक साधना थी, एक आत्मसमर्पण की यात्रा थी। यह यात्रा बाहरी मार्ग पर नहीं, बल्कि अंतर्मन की गहराइयों में चल रही थी। वह रास्ता कठिन था, लेकिन उसी कठिनाई में छिपा था जीवन का साक्षात अनुभव।

परिक्रमा के दिनों में मैं अकेला चलता था—पूर्णतः असुरक्षित, किसी के भरोसे नहीं। न भोजन की चिंता, न रात्रि विश्राम की कोई निश्चितता। चारों ओर अनजान जंगल, अज्ञात रास्ते, अपरिचित लोग। हर कदम पर असुरक्षा का भाव मन में जागता, लेकिन उसी असुरक्षा में धीरे-धीरे एक गहरा समर्पण जन्म लेने लगा।
एक समय के बाद, वह असुरक्षा डर में बदलने के बजाय श्रद्धा में परिवर्तित हो गई। मुझे यह अनुभव होने लगा कि कोई अदृश्य शक्ति मेरी रक्षा कर रही है। वह शक्ति मेरे साथ चल रही है, मुझे देख रही है, मुझे संभाल रही है। यह अनुभव इतना स्पष्ट था कि मैं कह सकता हूं—वह शक्ति ही मां नर्मदा थी।
इस अवस्था में पहुंचकर, मन में न तो चिंता बचती है, न भविष्य की कोई योजना। मैं बस चलता रहा, केवल मां नर्मदा पर छोड़कर। और तभी वह अनुभव आया, जिसने सब कुछ बदल दिया।
नर्मदा के तट पर चलते-चलते, एक दिन ऐसा हुआ, अचानक मुझे लगा कि पूरी सृष्टि जीवंत हो उठी है। हर पेड़, हर पत्ता, हर कंकड़—सब कुछ जैसे चेतना से भर उठा। मैं, जो उस क्षण तक ‘मैं’ था, विलीन हो गया। केवल सृष्टि रह गई, और उसमें एक दिव्य नृत्य हो रहा था।

वह अनुभव ऐसा था, जैसे कोई पर्दा हट गया हो और सच्चाई अपने पूर्ण स्वरूप में प्रकट हो गई हो। वहां कोई द्वैत नहीं था—न मैं, न संसार—केवल एक अखंडता थी, केवल वही था। यह कहना कठिन है कि वह मां नर्मदा थी, प्रकृति थी, या चेतना थी—वह सब कुछ था।
उस अनुभव में ‘मैं’ नाम की कोई चीज शेष नहीं थी। अनुभव था, लेकिन अनुभवकर्ता नहीं। मैं पूरी तरह मिट चुका था, और केवल वही शेष था। यह स्थिति शब्दातीत है। इसे कहने का प्रयास भी इसकी पवित्रता को कम कर देता है।
आज भी, जब-जब मैं पूर्ण समर्पण की अवस्था में जाता हूं, वह अनुभव सूक्ष्म रूप से मेरे भीतर बना रहता है। यह केवल परिक्रमा के उन दिनों की बात नहीं है, वह अनुभूति मेरे अस्तित्व का हिस्सा बन चुकी है। बस, रोजमर्रा के जीवन की हलचल में वह धुंधली पड़ जाती है, लेकिन जैसे ही ध्यान गहरा होता है, वह अनुभूति फिर प्रकट होने लगती है।

मुझे यह भली-भांति समझ में आ चुका है कि जब तक हम संसार की वस्तुओं को पकड़े रहते हैं—सुरक्षा, भविष्य की चिंता, संबंधों का मोह—तब तक हम मां नर्मदा का अनुभव नहीं कर सकते। मां नर्मदा केवल तब मिलती है, जब हम सब कुछ छोड़कर, अपनी असुरक्षा को स्वीकार करके, पूर्ण समर्पण में उतर जाते हैं।

साधना कोई अलग कार्य नहीं है, यह जीवन जीने की वह अवस्था है, जहां हम हर क्षण समर्पित होकर जीते हैं। जब हम किसी काम में पूरी तरह लीन हो जाते हैं, तो अचानक साक्षी भाव जागता है। हम देखते हैं कि कार्य हो रहा है, लेकिन हम करने वाले नहीं हैं। बस, वही है, जो करवा रहा है।
जब यह अनुभव हमारी दिनचर्या में प्रवेश करने लगता है, तब हम लोगों की अपेक्षाओं के अनुसार नहीं जी पाते। हम फिजूल की बातों से बचने लगते हैं। लोग हमें अलग समझने लगते हैं, कुछ पागल कहते हैं, कुछ उदासीन समझते हैं। लेकिन जो इस मार्ग पर चलता है, वह जानता है कि यह सहजता ही उसका धन है।

लोगों को बदलने की आवश्यकता नहीं है। जैसे हम बदलते हैं, वैसे ही हमारे आसपास का वातावरण अपने आप बदल जाता है। हम केवल अपने अनुभव की सरलता में जीते रहते हैं। जो समझने योग्य हैं, वे समझ जाते हैं, जो नहीं समझ सकते, वे अपने ही ढंग से देखते हैं।
ईश्वर हर जगह है—वह पेड़ों में, नदियों में, पक्षियों में, हवा में, और हमारे भीतर। लेकिन वह तभी प्रकट होता है, जब हम स्वयं को छोड़कर, पूर्ण समर्पण में उतरते हैं।

नर्मदा परिक्रमा मेरे लिए वह साधना थी, जिसने मुझे यह सिखाया कि जब हम असुरक्षा के बीच समर्पित होकर चलते हैं, तब मां नर्मदा अपने आप प्रकट होती है। वह दिखती नहीं, पर महसूस होती है। और जब वह महसूस होती है, तब ‘मैं’ नहीं रहता—बस वही रहती है।
यह अनुभव सबका हो सकता है। बस हमें तैयार होना है। असुरक्षा को स्वीकार कर, स्वयं को छोड़कर, उस अज्ञात पर भरोसा करके चल पड़ना है।
ईश्वर कहीं बाहर नहीं, वह हमारे हर कदम में है। हम जब समर्पण के साथ कदम बढ़ाते हैं, तो वह हमारे सामने प्रकट होता है
