
हर रोज अखबार , न्यूज चैनल्स और यूट्यूब में पत्रकार राजनेता, अभिनेता, खिलाड़ी, कारोबारी, पुलिस, प्रशासन, धर्मगुरु सभी को एक तरह से चारित्रिक प्रमाण पत्र देते हैं। कौन भला है और कौन बुरा। किसकी कैसी छवि है ? कौन भ्रष्ट है और कौन ईमानदार। इत्यादि। पाठक, दर्शक और श्रोता यह मानकर चलते हैं कि जो कुछ मीडिया दिखा , सुना या पढ़ा रहा है शायद वही सत्य भी हो ( हालांकि विगत में यह धारणा परिवर्तित हो चली है) इसके बावजूद मीडिया में बैठे लोग प्रतिदिन रोजनामचा लिखते हैं। एक- दूसरे की जवाबदेही तय करते हैं कि आपको ऐसा करना चाहिए,आपको वैसा करना चाहिए।
…और खुद अपने को सत्यवादी और धर्मराज का तमगा देकर संतुष्ट हो जाते हैं। सबसे सवाल पूछने का अधिकार रखने वाले पत्रकारों से आखिर कौन प्रश्न पूछे, कोई पूछेगा कि भाई आप इतनी फेक और पेड न्यूज क्यों लगाते हैं? कोई पूछेगा कि आप इतनी काली-पीली पत्रकारिता क्यों करते हैं? कोई पूछेगा कि आप किसी मंत्री – संत्री के दरबार में अनावश्यक ही हाजिरी लगाने क्यों पहुंच जाते हैं? कोई पूछेगा कि भाई आप अपुष्ट, अपूर्ण खबर क्यों चलाते हैं? आप किसी खास विचारधारा के बंधक बनकर काम क्यों कर रहे हैं? कोई यह भी पूछ सकता है कि आप खबरों की आड़ में ब्लैकमेलिंग कब बंद करेंगे? बगैर प्रमाणिक दस्तावेज के किसी का मान- मर्दन करना कितना उचित है? आप किसी जाति, संप्रदाय में विद्वेष पैदा करने वाली खबरें क्यों परोसते हैं?
आम आदमी के मन में ऐसे जाने कितने सवाल कौंधते होंगे किंतु कोई उनसे पूछने का साहस कर कहां पाता है ? किसी के मुंह पर माइक ठूंसने का मौलिक अधिकार तो सिर्फ पत्रकारों को ही तो मिला है। यह भी चोर वह भी चोर । साहूकार तो मात्र हम ही हैं। जब इन्हीं के साथी साहूकारों की आत्ममुग्ध ‘ ईमानदारी की कहानियां ‘ सुनता हूं तो दिमाग घूम जाता है। लगता है कि कोई प्रहसन सा कर रहा है। यह सारी स्थिति देख महसूस होता है कि पत्रकारिता को सबसे बड़ा संकट बाहरी दुनिया से उतना है ही नहीं जितना स्वयं पत्रकारों से है। पत्रकार पतन की पराकाष्ठा पार कर चुके हैं। किसी दरबार में कलम नीलाम है तो कहीं गिरवी, कोई तो दरबारी ही हो गए। कहीं पत्रकार घुटना टेक हैं तो कहीं दंडवत। इनमें भी कुछ ज्ञात हैं तो कुछ अज्ञात, जो कंबल ओढ़कर घी का रसास्वादन कर रहे हैं।
सूत्र यह है कि पत्रकारिता में आए नैतिक, चारित्रिक पतन के लिए कभी पत्रकारों को भी तो कठघरे में आना चाहिए, प्रश्नों के जवाब भी देना चाहिए, अपनी सामाजिक जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करना चाहिए ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके।
साभार आशीष द्विवेदी जी की वॉल से………
