
वरिष्ठ पत्रकार रजनीश जैन की वॉल से
मध्यप्रदेश के बहुत बड़े भूभाग पर मराठों का शासन 80 से ज्यादा वर्षों तक रहा है लेकिन अपने शासन काल में इंदौर, ग्वालियर, देवास, उज्जैन जैसे अनेक क्षेत्रों में मराठों ने अपनी प्रजा पर मराठी बोली नहीं थोपी। वे अपने घरों और अपने समुदाय में मराठी में बात करते थे लेकिन स्थानीय लोगों से उनकी बोली में बातचीत करते थे। उदाहरण के लिए इंदौर के होल्करों और उनके प्रशासनिक अमले ने मालवी सीख ली , बुंदेलखंड के मराठा शासकों व उनके प्रशासनिक अमले ने बुंदेली सीखी। सागर और जालौन इलाके के मराठा शासक गोविंद पंत खेर को तो मराठी पत्राचार में भी गोविंद पंत बुंदेले खेर लिखा गया। आज भी बुंदेलखंड के महाराष्ट्रीयन समाज के लोग बहुत ही प्यारी और ठेठ बुंदेली बोलते हैं। … इससे हमें क्या सीख मिलती है!? यह कि जहां भी जाइए वहां की स्थानीय बोली, भाषा सीख लेना आपकी लिए ही फायदेमंद और सुविधाजनक होता है। आप वहां भी अपने परिवार और अपने देशज समुदाय के बीच आप अपनी मातृभाषा बोली में बातचीत करिए। जितनी ज्यादा बोली भाषा आपके पास होंगी वह आपका अतिरिक्त ज्ञान है जो हर प्रकार से लाभदायक होगा।
आपने इस तथ्य पर गौर किया कि मुंबई और महाराष्ट्र के कुछ अन्य जिलों में जिन उत्तर भारतीयों से स्थानीय लोगों को आपत्ति है उनमें बिहार और यूपी के लोग हैं लेकिन मध्यप्रदेश के लोगों के बारे में महाराष्ट्र में एक स्वीकार्यता का भाव है। उसकी वजह यही है कि मध्यप्रदेश का बड़ा हिस्सा तीन सौ साल पहले महठा शासन के ही प्रशासकीय इंतजाम में रहा है। मध्यप्रदेश के आधे से अधिक जिलों में बड़ी संख्या में आज भी महाराष्ट्रीयन समुदाय है जो यहां लगभग 1733 के बाद के विभिन्न दशकों से रह रहा है। अंग्रेजी शासनकाल तक यहां के सैकड़ों गांव महाराष्ट्रीयन मालगुजारों जमींदारों के पास रहे हैं। एक तरह से कहा जाए तो सन् 1733 से 1806 तक तक बुंदेलखंड और मध्यप्रदेश के बड़े हिस्से की राजधानी पुणे ही थी जहां के शनिवार वाड़ा से पेशवा यहां तक का शासन चलाते थे। इस राजनैतिक संबंध से महाराष्ट्र पर मध्यप्रदेश वाला का भी हक है।
